विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी
जी ने अपनी 25 विज्ञान कथाओं का संग्रह 'परियां फिर लौट आईं' मुझे जुलाई के आसपास अवलोकनार्थ भेजा था। मैं आभारी हूं।
मैं यहाँ इस संग्रह पर अपना दृष्टिकोण रख रहा हूं। यह मेरी अपनी
अवधारणों तथा चकमक में काम करते हुए बनी हुई समझ पर आधारित है। यह कतई जरूरी नहीं
है कि सब लोग इससे सहमत हों, यह भी जरूरी नहीं है कि चतुर्वेदी जी इससे इत्तफाक रखते
हों। उन्हें इसमें से जो बात उचित लगे वे उसे स्वीकारें, अपने लेखन में अपनाएं।
अपनी बात कहने से पहले
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि विज्ञान कथाएं सामान्य कथाओं से न केवल भिन्न होती
हैं, वरन् उनका एक दायित्व भी बनता है कि वे विज्ञान के सर्वमान्य सिद्धांतों का
पालन करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश करें। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि
उनके माध्यम से विज्ञान की अवधारणाएं पाठकों के बीच पहुंच रही होती हैं।
संग्रह को पढ़ते हुए पहली
बात यह महसूस हुई कि वास्तव में यह कहानी संग्रह कम विज्ञान लेखों का संग्रह अधिक
है। (बल्कि संग्रह में एक वास्तविक लेख भी है।) इन्हें पढ़ते हुए मुझे चकमक बहुत
याद आई। चकमक में हम किसी अवधारणा को समझाने के लिए कथोपकथन का सराहा लेते थे।
लेकिन इस बात का ध्यान रखते थे कि सैद्धांतिक बातें सीधे-सीधे न आ जाएं।
चतुर्वेदी जी ने विज्ञान
के तथ्यों को समझाने के लिए कहानी तथा कथोपकथन का सहारा लिया है। लेकिन जब तथ्य
उसमें आते हैं वहां विज्ञान की किसी पाठ्यपुस्तक का ही आभास होने लगता है, कहानी का नहीं। इससे यह
भी पता चलता है कि लेखक के दिमाग में यह बात पहले से ही तय थी कि उसे इस तथ्य का
उपयोग करना ही था। बाकी सारी बुनावट उसे बताने के लिए ही की गई है। पर मुश्किल यही
है कि वे इस बुनावट में पूर्णत:सफल नहीं हो पाए हैं।
कुछ कहानियां जैसे अजगर
हुआ पंक्चर, कहो कैसी रही, ऊंट से मुलाकात, चीकू मिला नेवले से, घंमडी जबरू, मटकू-झटकू की दीवाली पंचतंत्र की याद दिलाती
हैं। उससे भी ज्यादा वे ‘चंपक’ की कहानियों की याद दिलाती हैं। मैं इस बात के खिलाफ नहीं
हूं कि जानवरों पर कहानियां न लिखीं जाएं। वे लिखी जाएं और उसमें उनके ही परिवेश
की बातें हों। पर मुझे यह अजीब लगता है कि जानवरों का मानवीकरण किया जाए और उसमें
बातें भी मानवीय परिवेश की हों। हो सकता है कि कुछ बच्चे इन्हें पढ़कर आनंदित
हों। पर यह बात सभी पर लागू नहीं हो सकती।
मक्खीचूस,झील की मछलियां, तुम भी दोषी हो, परियां फिर लौट आईं, होली है, टुन्ना और तितली,पाप का फल आदि कहानियां का केन्द्रीय
विषय पर्यावरण है। पर इनमें भी वही समस्या है। मुद्दा इतने कृत्रिम तरीके से
सामने आता है कि वह प्रभाव ही नहीं छोड़ता। मक्खीचूस कुछ बेहतर है। झील
की मछलियां बेहतर हो सकती थी, अगर इसमें जादूगर के स्थान पर किसी और चरित्र को लाया
जाता। जादूगर का चरित्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ जाता है। असंगत प्रसार को
समझाने के लिए बेवजह कहानी को खींचा गया है। इसी तरह कुएं का भूत में मंत्र
की चर्चा करने से बचने की जरूरत थी। परियां...कहानी पढ़ने के लिए तो जैसे
आपको तर्क उठाकर ताक पर रख देने की जरूरत होती है। हां इनमें भोजन का सबक
सबसे बेहतर है। पर तार्किक होते हुए भी उसमें सुझाया गया तरीका व्यवहार में लाने
के लिए नहीं उकसाता। वास्तव में सारी कहानियों की यह एक मूल समस्या है।
कोई नहीं स्थिर यहां, सब गतिमान हैं, तिथि क्यों टूटी, शून्य है पृथ्वी का
भार, महाबली, निशानगर का राजकुमार आदि कहानियां बहुत बोझिल
हैं। उनमें शुद्ध रूप से विज्ञान की अवधारणा को समझाने का प्रयत्न किया गया है।
सामान्यत: कहानियों या कविताओं
के साथ जो चित्र होते हैं, उनकी भूमिका होती है कहानी या कविता के मर्म को और उभारना।
एक तरह से वे पूरक का काम करते हैं। संग्रह में कहानियों के साथ चित्र भी हैं, पर चित्रकार का नाम नहीं
है। अगर नाम या चित्रकार का परिचय होता तो यह समझने में मदद मिलती कि चित्रकार वास्तव
में कितना परिपक्व है। इन चित्रों में तो उसका कच्चापन ही झलक रहा है।
संग्रह का आवरण रंगीन है, पर उसमें भी कल्पनाशीलता
का अभाव ही नजर आता है। आवरण बनाने वाले चित्रकार ने केवल संग्रह के नाम को ही ध्यान
में रखा है, संग्रह की कहानियों के कथ्य को नहीं।
विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी जी
ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, ‘कहानी की विषयवस्तु बच्चों
के स्तर के अनुकूल हो तथा रोचक हो, उसके लिए घर में बच्चियों
का एक प्राथमिक चयन दल बना हुआ है। रचना उनके अनुमोदन के बिना आगे नहीं जाती है।’ उनका यह प्रयोग एक नई दिशा
देता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि बच्चों की यह भागादीरी निष्पक्ष
और ईमानदार तरीके से हो।
- परियां फिर लौट आईं :विज्ञान बालकथाएं
- लेखक : विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी
- प्रकाशक : साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन,जयपुर
- मूल्य : दो सौ रूपए
0 राजेश उत्साही