डॉ. वेद ‘व्यथित’ जी से मेरा पहला परिचय साखी ब्लाग पर हुआ था। वहां उनकी कविताएं प्रकाशित हुईं थीं। आदतन मैंने अपनी टिप्पणी की थी। मुझे याद है मैंने लिखा था ,वेद जी अपनी कविताओं में आत्मालाप करते नजर आते हैं। टिप्पणी थोड़ी तल्ख थी, पर उन्होंने मेरी बात को बहुत सहजता से लिया था। मैं उनका तभी से मुरीद हो गया।
पिछले दिनों मैंने गुल्लक में सुधा भार्गव जी पर एक टिप्पणी लिखी थी और उनकी कविताओं की किताब का जिक्र करते हुए कुछ कविताएं भी दी थीं। संयोग से सुधा जी और वेद जी एक-दूसरे से पहले से परिचित थे, पिछले दिनों दिल्ली में उनकी मुलाकात हुई तो मेरी चर्चा भी निकल आई। वेद जी ने अपनी हाल ही में प्रकाशित कविताओं का संग्रह अर्न्तमन मुझे कूरियर से भेजा और आग्रह किया कि मैं अपनी प्रतिक्रिया दूं।
संग्रह के पहले पन्ने पर उन्होंने लिखा है, ‘सहृदय,सजग साहित्यकार,समर्थ समीक्षक,बेबाक आलोचक व मेरे अभिन्न मित्र राजेश उत्साही को सादर भेंट।’ जब आपको ऐसे विशेषणों से नवाजा जाता है तो आप अचानक ही सजग हो उठते हैं, आपको उन पर खरा उतरने की कोशिश भी करना पड़ती है।
ईमानदारी से कहूं तो वेद जी के संग्रह की कविताएं पढ़ते हुए मैंने यह कोशिश की है। संग्रह में छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 80 कविताएं हैं। वेद जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, ‘ये कविताएं स्त्री-विमर्श पर हैं। लेकिन मैंने चलताऊ स्त्री विमर्श के नारे को इनमें कतई नहीं ढोया है। स्त्री विमर्श शब्द आते ही लगने लगता है – शोषित,अबला,सताई हुई,बेचारी दबी कुचली स्त्री या हर तरह से हारी हुई या जिस तरह साहित्यकारों ने उसे इससे भी ज्यादा नीचे दिखाया जाना ही स्त्री विमर्श माना है,परन्तु मेरा ऐसा मानना नहीं है। ऐसा कहना स्त्री के प्रति एक प्रकार का अन्य है।'
ज्यादातर कविताओं में वेद जी अपनी बात पर अडिग नजर आते हैं। पर आत्मालाप वाली बात मुझे यहां भी नजर आती है। वे अपनी अधिकांश कविताओं में स्त्री से बतियाते नजर आते हैं। पर उनका बतियाना इतना सहज है कि उसमें कोई आडम्बर या लिजलिजापन नजर नहीं आता । आइए कुछ उदाहरण देखें-
तो क्या
मैं यह मानूं
कि जो मैंने सुना है
वह ही कहा है तुमने
यदि हां तो
बस उसकी स्वीकृति में
मात्र हां भर दो
(स्वीकृति)
कवि स्त्री के प्रति इतना प्रतिबद्ध है कि वह ना सुनने के लिए भी तैयार है बिना किसी शिकायत के। वह आशावान है-
अस्वीकृति भले हो भी
तो भी मुझे विश्वास है
कि वह अस्वीकृति हो ही नहीं सकती
क्योंकि कठोर नहीं है
तुम्हारा हृदय
(विश्वास)
स्त्री का यह रूप वेद जी को केवल स्त्री में नहीं प्रकृति में भी दिखाई देता है-
मिट्टी के नीचे
कितने भी गहरे
चले जाएं बेशक बीज
तो भी नष्ट नहीं होते हैं वे
धरती मां अपनी गोद में
दुलारती रहती है उन्हें
(प्यार व दुलार)
पुरुष होने के नाते कहीं-कहीं वे अपराध बोध से भर उठते हैं। लेकिन वे इसे स्वीकारने में हिचकिचाते नहीं हैं-
और मैं अपने अहम् को
बचाए रखने के लिए
कभी बना तुम्हारा देवता
कभी स्वामी और
कभी परमेश्वर
(तुम्हारे प्रश्न)
कितने अपराधबोध ने
ग्रस लिया था मुझे
जब तुम्हारी निरीहता को
अपना अधिकार मान लिया था मैंने
(पुरुषत्व)
वेद जी स्त्री के जितने आयाम हो सकते हैं उन सबकी बात करते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि उनकी दृष्टि कितने सूक्ष्म अवलोकन कर सकती है। ऐसे अवलोकन करने के लिए धीरज तो चाहिए होता है, धीरज ऐसा जो किसी स्त्री के धीरज की तुलना में ठहर सके। ऐसा मन भी चाहिए जो स्त्री के मन की थाह पाने की न केवल हिम्मत रखता हो बल्कि जुर्रत भी कर सके। वेद जी इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं । अपनी कविताओं में वे स्त्री की नेहशीलता,स्त्री की हंसी, उसके हृदय, उसकी क्षमाशीलता, उसकी सहनशीलता, उसकी नियति, उसके समर्पण, उसके मौन, उसके विश्वास, उसके संघर्ष, उसकी शक्ति, उसकी तपस्या, उसके धीरज, उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व और अस्तित्व की बात करते हैं।
कविताएं सहज भाषा में हैं, उन्हें पढ़ते हुए अर्थ समझने के लिए शब्दों में उलझना नहीं पड़ता है। बिम्बों का वेद जी ने भरपूर उपयोग किया है, पर वे भी गूढ़ या अमूर्तता की हद तक नहीं हैं। इन कविताओं को पढ़ना सागर की गहराई में उतरने जैसा है। गहराई में जाने पर आपको ढेर सारे मोती नजर आते हैं। इन मोतियों की चमक से आपकी आंखें चौंधिया जाती हैं। आप तय नहीं कर पाते हैं कि कौन-सा मोती उठाएं। क्योंकि सभी एक से बढ़कर एक हैं। इस संग्रह की हर कविता अपने आप में एक मोती है, लेकिन इन्हें एक साथ देखकर इनकी चमक आपस में इतनी गड्ड-मड्ड हो जाती है कि आप किसी एक को भी अपनी स्मृति में नहीं रख पाते। बहरहाल वेद जी ‘अन्तर्मन’ में तो बस ही जाते हैं।
वे कहते हैं-
मुझे सुनने में क्या आपत्ति है
तुम सुनाओ
मुझे देखने में क्या आपत्ति है
तुम दिखाओ
परन्तु जरूरी है
इसे देखने,सुनने और बोलने में
मर्यादा बनी रहे
हम दोनों के बीच
(मर्यादा)
0 राजेश उत्साही