प्रो. पालिस्कर आपके कार्यालय में
तथाकथित रिपब्लिकन पार्टी के चार सदस्यों द्वारा मेरे कार्टून को लेकर जो तोड़फोड़ की गयी उसके लिए मुझे बहुत खेद
है। मुझे
विश्वास है कि शायद वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या किया है। इसलिए आप उन्हें
माफ़ कर दें। उनके इस कृत्य पर मैं भी बहुत दुखी हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। मैं समझ नहीं पा रहा
हूँ कि ऐसा करके उन्होंने मेरे कौन से आदर्श
की पूर्ति की है।
मैं तो जीवन भर दलितों के बोलने की आज़ादी की लडाई लड़ता रहा क्योंकि दलित सदियों से चुप्पी का शिकार रहे हैं। उन्हें सदियों से गूंगे बहरे बना कर रखा गया था। वे सदियों से सभी प्रकार का अपमान सहकर चुप रहने के लिए बाध्य किये गए। मैंने भी यह सब झेला। पढ़ लिख कर मैं उनकी ज़ुबान बना और मैंने उन्हें ज़ुबान देने की जीवन भर कोशिश की। परन्तु उन्होंने आप के साथ ऐसा करके मेरी ज़ुबान ही बंद कर दी ।
नहीं ! मैं चुप नहीं रह सकता। मैं इस घटना पर अवश्य बोलूँगा क्योंकि यह सब कुछ मेरे नाम पर किया गया है। मुझे पता चला है कि यह सब एक पुस्तक में मेरे से सम्बंधित एक कार्टून को लेकर किया गया है। इसमें मुझे अपमानित किये जाने का बहाना लेकर पहले तो पार्लिआमेंट में मेरे अति उत्साही अनुयायिओं ने दिनभर हंगामा किया और सदन का काम काम काज नहीं चलने दिया। कुछ ने तो पुस्तक को तैयार करने वाले विद्वानों पर एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा कायम करके कार्रवाही करने की मांग कर डाली। मेरे एक शुभचिंतक ने तो इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्था को ही भंग करने का प्रश्न उठा दिया। मुझे यह सब जानकर बहुत दुःख हुआ है। मैं तो जीवन भर पुस्तक प्रेमी रहा हूँ और मैंने जीवन भर अपनी लाईब्रेरी में सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह किया और उन्हें पढ़ा भी था । अब अगर मेरे नाम पर किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस से मुझे कितना कष्ट होगा।
मुझे उम्मीद थी कि जब सदन में सरकार ने किसी औचित्य पर विचार किये बिना वोट की राजनीति के अंतर्गत केवल कुछ लोगों के दबाव में पुस्तक में से उस कार्टून को निकाल देने का आश्वासन दे दिया था तो उन्हें शांत हो जाना चाहिए था। परन्तु उन्हें इससे भी संतुष्टि नहीं मिली और उन्होंने आप के कार्यालय में आकर तोड़फोड़ की कार्यवाही की जो कि मेरे द्वारा अपने विरोधियों के तमाम कटाक्षों और आलोचनाओं को धैर्य से सुनने और शालीनता से उनका उत्तर देने के स्वभाव का अपमान है। मैंने तो अपने जीवन में कितने कटाक्षों और आलोचनाओं का सामना किया था परन्तु मैं ने कभी भी अपना मानसिक संतुलन नही खोया था। मैं तो जीवन भर वाल्टेयर के उस कथन का कायल रहा हूँ जिस में उसने कहा था ," मैं आपसे सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी सांस तक रक्षा करूँगा।" मैंने गाँधी, नेहरु, पटेल न जाने कितने लोगों से गंभीर मुद्दों पर बहसें की थीं परन्तु मैंने कभी भी विरोधियों के कथन को दबाने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा तर्क और तथ्यों सहित शालीनतापूर्वक उनका उत्तर दिया था। मैंने तो गाँधी जी को भी पहली मीटिंग में ही कहा था, "अगर आप मुझे मारना चाहते हैं तो सिद्धांतों से मारिये भावनाओं से नहीं।" अब अगर कुछ लोग मेरे नाम पर वार्तालाप का रास्ता छोड़ कर तोड़फोड़ का रास्ता अपनाते हैं तो यह मेरे सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है।
मैं तो जीवन भर दलितों के बोलने की आज़ादी की लडाई लड़ता रहा क्योंकि दलित सदियों से चुप्पी का शिकार रहे हैं। उन्हें सदियों से गूंगे बहरे बना कर रखा गया था। वे सदियों से सभी प्रकार का अपमान सहकर चुप रहने के लिए बाध्य किये गए। मैंने भी यह सब झेला। पढ़ लिख कर मैं उनकी ज़ुबान बना और मैंने उन्हें ज़ुबान देने की जीवन भर कोशिश की। परन्तु उन्होंने आप के साथ ऐसा करके मेरी ज़ुबान ही बंद कर दी ।
नहीं ! मैं चुप नहीं रह सकता। मैं इस घटना पर अवश्य बोलूँगा क्योंकि यह सब कुछ मेरे नाम पर किया गया है। मुझे पता चला है कि यह सब एक पुस्तक में मेरे से सम्बंधित एक कार्टून को लेकर किया गया है। इसमें मुझे अपमानित किये जाने का बहाना लेकर पहले तो पार्लिआमेंट में मेरे अति उत्साही अनुयायिओं ने दिनभर हंगामा किया और सदन का काम काम काज नहीं चलने दिया। कुछ ने तो पुस्तक को तैयार करने वाले विद्वानों पर एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत मुकदमा कायम करके कार्रवाही करने की मांग कर डाली। मेरे एक शुभचिंतक ने तो इन पुस्तकों को तैयार करने वाली संस्था को ही भंग करने का प्रश्न उठा दिया। मुझे यह सब जानकर बहुत दुःख हुआ है। मैं तो जीवन भर पुस्तक प्रेमी रहा हूँ और मैंने जीवन भर अपनी लाईब्रेरी में सभी प्रकार की पुस्तकों का संग्रह किया और उन्हें पढ़ा भी था । अब अगर मेरे नाम पर किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इस से मुझे कितना कष्ट होगा।
मुझे उम्मीद थी कि जब सदन में सरकार ने किसी औचित्य पर विचार किये बिना वोट की राजनीति के अंतर्गत केवल कुछ लोगों के दबाव में पुस्तक में से उस कार्टून को निकाल देने का आश्वासन दे दिया था तो उन्हें शांत हो जाना चाहिए था। परन्तु उन्हें इससे भी संतुष्टि नहीं मिली और उन्होंने आप के कार्यालय में आकर तोड़फोड़ की कार्यवाही की जो कि मेरे द्वारा अपने विरोधियों के तमाम कटाक्षों और आलोचनाओं को धैर्य से सुनने और शालीनता से उनका उत्तर देने के स्वभाव का अपमान है। मैंने तो अपने जीवन में कितने कटाक्षों और आलोचनाओं का सामना किया था परन्तु मैं ने कभी भी अपना मानसिक संतुलन नही खोया था। मैं तो जीवन भर वाल्टेयर के उस कथन का कायल रहा हूँ जिस में उसने कहा था ," मैं आपसे सहमत न होते हुए भी आप के ऐसा कहने के अधिकार की आखरी सांस तक रक्षा करूँगा।" मैंने गाँधी, नेहरु, पटेल न जाने कितने लोगों से गंभीर मुद्दों पर बहसें की थीं परन्तु मैंने कभी भी विरोधियों के कथन को दबाने की कोशिश नहीं की बल्कि हमेशा तर्क और तथ्यों सहित शालीनतापूर्वक उनका उत्तर दिया था। मैंने तो गाँधी जी को भी पहली मीटिंग में ही कहा था, "अगर आप मुझे मारना चाहते हैं तो सिद्धांतों से मारिये भावनाओं से नहीं।" अब अगर कुछ लोग मेरे नाम पर वार्तालाप का रास्ता छोड़ कर तोड़फोड़ का रास्ता अपनाते हैं तो यह मेरे सिद्धांतों के बिलकुल खिलाफ है।
शंकर । सौजन्य:चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट |
जिस कार्टून को लेकर ये सब हंगामा खड़ा किया गया है वह कार्टून तो १९४९ में मेरे सामने ही छपा था। मैंने भी उसे देखा था और उसमे शंकर के संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर किये गए व्यंग और चिंता को भी पहचाना था। मुझे यह बहुत अच्छा लगा था। नेहरु और हम दोनों ही संविधान निर्माण की धीमी गति को लेकर चिंतित रहते थे परन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया में ऐसा होना स्वाभाविक था। बाद में मैंने २५ नवम्बर, १९४९ को संविधान को अंगीकार करने वाले भाषण में संविधान निर्माण में लगे समय के औचित्य के बारे में सफाई भी दी थी। मुझे ज्ञात हुआ है कि उक्त कार्टून वाली पुस्तक में भी संविधान निर्माण की धीमी गति के कारणों का उल्लेख किया गया था और कार्टून के माध्यम से इस के बारे में छात्रों से प्रश्न पूछा गया था। काश ! कार्टून में मेरे अपमान के नाम पर तोड़फोड़ और हंगामा करने वालों ने भी पुस्तक में कार्टून के संदर्भ को पढ़ा होता तो शायद वे ऐसा नहीं करते।
मैंने जीवन भर विरोध के संवैधानिक तरीकों की ही वकालत की थी। मैंने अपने जीवन काल में जो भी आन्दोलन किये वे सभी शांति पूर्ण और कानून के दायरे में ही थे। मैं ने कभी भी हिंसा और तोड़फोड़ की सलाह नहीं दी थी। मेरे नाम पर तोड़फोड़ करने वालों को मैं सलाह दूंगा कि वे मेरे संविधान अंगीकार के अवसर पर दिए भाषण के उस अंश को ज़रूर पढ़ लें जिस में मैंने कहा था, "हमें सत्याग्रह, असहयोग और अवज्ञा के तरीकों को छोड़ देना चाहिए। जब सामाजिक और आर्थिक उद्धेश्यों को संवैधानिक तरीके से प्राप्त करने के साधन न बचे हों तो तो गैर संवैधानिक तरीके अपनाने का कुछ औचित्य हो सकता है। परन्तु जहाँ संवैधानिक तरीके उपलब्ध हों तो गैर संवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचित्य नहीं हो सकता। यह तरीके अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाये उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा।"
मुझे आज यह देख कर बहुत दुःख होता है जब मैं देखता हूँ कि हमारे देश में विरोध की आवाज़ को सरकारी और गैर सरकारी तौर पर दबाने की कितनी कोशिश की जा रही है। मैं जानता हूँ कि हम लोगों ने संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समावेश कितनी उम्मीद के साथ किया था। आज मैं देखता हूँ कि कुछ लोग अपने संख्याबल या बाहुबल से कमज़ोर लोगों की सही आवाज़ को दबाने में सफल हो जाते हैं। आज की सरकारें भी इसी प्रकार से जनता की आवाज़ को दबा देती हैं। हमारे देश में से तर्क और बहस का माहौल ख़त्म हो चुका है। मैं जानता हूँ कि कुछ लोग धर्म अथवा सम्प्रदाय की भावनाओं के आहत होने की बात कर के दूसरों की आवाज़ को दबा देते हैं. मैंने देखा है कि किस तरह कुछ लोगों ने हो हल्ला करके शिवाजी पर लिखी गयी पुस्तक, तसलीमा नसरीन तथा सलमान रश्दी द्वारा लिखी गयी पुस्तकों को प्रतिबंधित करवा दिया था। इन लोगों ने तो मुझे भी नहीं बख्शा था। आप को याद होगा कि जब महाराष्ट्र सरकार ने मेरी अप्रकाशित पुस्तक "रिडल्स इन हिन्दुइज्म' को प्रकाशित करवाया था तो किस प्रकार कुछ लोगों ने इसे हिन्दू तथा हिन्दू देवी देवता विरोधी कह कर इसे प्रतिबंधित करने की मांग उठाई थी। यह तो मेरे दलित अनुयायिओं और बुद्धिजीवियों का ही प्रयास था कि उन्होंने इस के पक्ष में बम्बई में भारी जन प्रदर्शन करके इसे बचा लिया था। परन्तु कल उन्होंने जो कुछ किया है वह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिलकुल खिलाफ है। कल अगर कुछ लोग मेरे द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में अंकित आलोचना को लेकर मेरी पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की मांग उठा दें तो दलितों के पास इस के विरोध का क्या तर्क बचेगा।
मैं समझता हूँ कि मेरे दलित अनुयायी ऐसा क्यों करते हैं। मैं जानता हूँ कि वे मेरा कितना सम्मान करते हैं। वे मुझ से भावनात्मक तौर पर किस सीमा तक जुड़े हुए हैं। जब कभी कोई भी उन्हें मेरे बारे में कुछ भी सही या गलत बता देता है तो वे भड़क जाते हैं और इस प्रकार की कार्यवाही कर बैठते हैं। इस में उनका कसूर नहीं हैं। वे अपने नेताओं द्वारा गुमराह कर दिए जाते हैं। उनमें से तो बहुतों ने मुझे पूरी तरह से पढ़ा भी नहीं है। अतः वे दूसरों द्वारा निर्देशित हो जाते हैं। मुझे लगता है दलितों ने मेरे " शिक्षित करो, संघर्ष करो और संघटित करो " नारे को सही रूप में समझा नहीं है। मुझे यह भी देख कर बहुत दुःख होता है कि मेरे नाम पर आज किस प्रकार की दलित राजनीति हो रही है। मेरे द्वारा बहुत उम्मीद के साथ बनायी गयी रिपबल्किन पार्टी आज कितने टुकड़ों में बंट चुकी है और उसके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए किस तरह के सिद्धान्तहीन एवं अवसरवादी गठ जोड़ कर ले रहे हैं। वे दलितों के मुद्दों के स्थान पर विशुद्ध वोट बैंक और सत्ता की राजनीति कर रहे हैं और लोगों का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। इस कार्टून के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है।
मुझे यह देख कर बहुत कष्ट होता है कि मेरे कुछ अतिउत्साही और अज्ञानी अनुयायियों ने मुझे केवल दलितों का ही मसीहा बना कर रख दिया है। मैं तो पूरे राष्ट्र का हूँ। मैंने जब स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व की बात की थी तो यह केवल दलितों के लिए ही नहीं की थी। मैंने इसे देश के सभी लोगों के लिए माँगा था। मैंने जब हिन्दू कोड बिल बनाया था तो मैंने इस में सम्पूर्ण हिन्दू नारी की मुक्ति की बात उठाई थी। हाँ मैंने दलितों को कुछ विशेष अधिकार ज़रूर दिलाये थे जो कि उनको समानता का अधिकार प्राप्त कराने के लिए ज़रूरी थे। अतः मेरा अपने अनुयायिओं और प्रशंसकों से अनुरोध है कि वे मुझे एक जाति के दायरे में न बांध कर पूरे राष्ट्र के फलक पर देखें।
मैं अपने अनुयायियों से यह भी अनुरोध करता हूँ कि वे मेरे जीवन दर्शन और मेरे जीवन मूल्यों को सही तरीके से जानें और उन्हें अपने आचरण में उतारें। उन्हें यह भी स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रहेगी जब वे दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करेंगे अन्यथा वे देश में बढ़ते फासीवाद और कट्टरपंथ को ही मज़बूत करेंगे। मेरे नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं से भी मुझे कहना है कि वे दलितों का भावनात्मक शोषण, वोट बैंक और जाति की राजनीति के स्थान पर मुदों पर आधारित मूल परिवर्तन की राजनीति करें जिस से न केवल दलितों बल्कि सभी भारतवासियों का कल्याण होगा.।
प्रो. पालिस्कर ! अन्तः में मैं आप के साथ मेरे तथाकथित कुछ अनुयायियों द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए पुनः खेद प्रकट करता हूँ। 0 एस.आर.दारापुरी
(यह पत्र फेसबुक से व्हाया ईमेल यहां तक पहुंचा।)
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ReplyDeleteApne vo sab kah diya Jo har kisi samajhdaar insaan ke dil mein hai ... Samajh nahi AA raha desh kidhar jaa raha hai ...
ReplyDeleteऐसे गुण उन लोगों के साथ ही चले गए..
ReplyDeleteयह पत्र यहाँ शेयर करने का आभार
विचारणीय
ReplyDeleteदेश का पहला पथ लिखने में वक्त तो लगता है..
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