27 नवम्बर, 2011 को उत्तरकाशी में एक सादे किन्तु गरिमामय समारोह में ' एक अध्यापक की डायरी के कुछ पन्ने' का विमोचन अनंत गंगोला ने किया। इस डायरी में हेमराज भट्ट ने अपने दैनिक अनुभवों को समेटा है। यह डायरी एक अध्यापक के संकल्प एवं व्यवस्था के प्रति पैदा हुए समालोचनात्मक दृष्टिकोण की स्पष्ट छटा दिखाती है। साथ ही एक कर्मठ अध्यापक की जद्दोजहद को भी हमारे सामने रखती है।
यहां प्रस्तुत हैं इस डायरी के तीन पन्ने-
आज स्कूल में अभिभावकों की बैठक रखी थी। बैठक का समय बच्चों को दस बजे बताया था। किन्तु अभिभावक प्रात: 8 बजे से ही आने लगे थे। सबसे पहले दो माताएं आईं और, ''भैंस के पास दूर डांडा जाना है'' कह कर जाने का आग्रह करने लगीं। मैंने रुकने का आग्रह तो किया पर वे घर के काम के बोझ का हवाला देती रहीं और ''आप नहीं मानते हैं तो रुक ही जाते हैं वैसे हमें जाने देते तो अच्छा था।'' कहकर चली गईं। मैंने भी दुराग्रहपूर्वक उन्हें नहीं रोका उनके गृहस्थी के काम की जटिलता और उसके बोझ की मजबूरी को मैं भली प्रकार समझता हूं।
इसी तरह चार और अभिभावक आए। ‘हमें आप पर विश्वास है, बच्चों को खूब डांट-पीट कर रखिए। बच्चे हमारी नहीं मानते हैं गुरु जी का भय अलग ही होता है। इन्हें खूब पीटिए हम कुछ नहीं कहेंगे। हम तो गुरु जी की बहुत मार खाते थे।’ जैसे वाक्य बोल कर चले गए। उन्होंने भी घर के खूब सारे काम गिनाए।
इसी तरह चार और अभिभावक आए। ‘हमें आप पर विश्वास है, बच्चों को खूब डांट-पीट कर रखिए। बच्चे हमारी नहीं मानते हैं गुरु जी का भय अलग ही होता है। इन्हें खूब पीटिए हम कुछ नहीं कहेंगे। हम तो गुरु जी की बहुत मार खाते थे।’ जैसे वाक्य बोल कर चले गए। उन्होंने भी घर के खूब सारे काम गिनाए।
साढ़े नौ बजे 20-25 अभिभावक, ग्राम प्रधान जी और क्षेत्र पंचायत के सदस्य आए। बरामदे में आगे पूरे साठ बच्चों को और पीछे अभिभावकों को बोरी और टाट पर बिठाया। सभी का स्वागत सम्बोधन किया और ग्राम प्रधान जी से बच्चों को बालिका प्रोत्साहन राशि से झोले, कापियां, ड्राइंग बॉक्स और पेंसिल रबर वितरित करवाए।
1 अगस्त,2007
आज प्रात: 7 बजे उत्तरकाशी से चलकर 9 बजे स्कूल पहुंचा। कल शाम पांच बजे तक लर्निंग गारंटी कार्यक्रम में व्यस्त रहा। विद्यालय में शिक्षा आचार्य श्रीमती बिमला और दोनों स्वयं सेवक शिक्षिका आ चुकी थीं और कार्यालय में तीनों आपस में बतिया रही थीं। मेरे आते ही वे सजग होकर बैठ गईं और कक्षा में जाने को उद्यत होने लगीं। बच्चे कक्षाओं में व्यवस्थित बैठे थे और भोजन माता भोजन पका रही थी। हम चारों ने बैठ कर यह निश्चय किया कि कौन किस कक्षा में क्या विषय पढ़ाएगा। बच्चों को चार स्थानों पर बिठाने का निश्चय किया।
भोजनावकाश के बाद तीनों शिक्षिकाएं कक्षा में चली गई। मैंने बच्चों को लेकर एक कक्ष साफ करवाया जिसमें बजरी और स्कूल का बेकार सामान और अन्य चीजें रखी हुई हैं।
आज मैंने किसी भी कक्षा में कोई भी विषय नहीं पढ़ाया। केवल कक्षा तीसरी में पर्यावरण अध्ययन में पढ़ाए गए पहले पाठ पर री कैप करवाया। जब मैंने बच्चों पूछा कि मैंने अब तक तुम्हें क्या-क्या बताया तो केवल दो बच्चों ने अपेक्षित उत्तर दिए- सजीव और निर्जीव वस्तुएं, भगवान और आदमी की बनाई हुई चीजें। बाकी बच्चों के उत्तर थे- कुर्सी, पत्तियां, टहनियां, आदमी, भैंस आदि।
मैंने इस कक्षा में लगातार तीन दिन तक चंदन का शीर्षक पाठ पढ़ाया। मानव निर्मित, प्राकृतिक वस्तुएं और सजीव-निर्जीव के बारे में चर्चा कराई तथा इन अवधारणाओं को समझाने का प्रयास किया।
मैं
बीस में से सोलह बच्चों से ‘प्राकृतिक’ शब्द का स्पष्ट और शुध्द उच्चारण
नहीं करवा सका। ऐसे में मैं झुंझला उठता हूं। हालांकि यह भाषागत समस्या है।
यह यकीन मुझे था कि मेरी बात को बच्चे समझ रहे थे और पूछने पर अपेक्षित
उदाहरण दे रहे थे। परन्तु सभी बच्चों को अपने परिवेश में हिन्दी के शब्द
सुनने और बोलने का मौका न मिलने के कारण नितान्त अपरिचित शब्दों का
उच्चारण करने, उन्हें समझने और याद रखने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है।
आज ठीक एक बजे बच्चों की छुट्टी की। मेरा सारा वक्त कमरों को व्यवस्थित करवाने में ही बीत गया। घर आकर भोजन किया और तीन बजे अपराह्न तक विश्राम किया। तीन बजे से चार बजे तक कक्षा दो के बच्चों के लिए एक कहानी टाइप की और प्रिंट निकाल कर उसे लेमिनेट किया। इस कहानी ''दो बकरियां'' से कक्षा दो के बच्चों से उन बच्चों को पढ़वाने का अभ्यास कराऊंगा जिन्हें वर्णमाला भी ठीक से पहचाननी नहीं आ रही है। चार बजे विद्या मन्दिर के आचार्य जी आए। एक घण्टा उन्हें कम्प्यूटर सिखाया और फिर उनके साथ बाजार टहलने निकल गया।
साढ़े आठ बजे से डायरी लिखी। दस बजे डायरी पूरी की, कादम्बिनी का अगस्त अंक पढा और साढ़े दस बजे सो गया।
13-14 अगस्त 2007
आज दिनांक 13 अगस्त सोमवार को ठीक सात बजे विद्यालय पहुंचा। आज मुझे एन. पी. आर. सी. बड़ेथ में नौ दिवसीय प्रशिक्षण में जाना है। और एम. टी. के रूप में प्रतिभाग करना है।
आज ठीक एक बजे बच्चों की छुट्टी की। मेरा सारा वक्त कमरों को व्यवस्थित करवाने में ही बीत गया। घर आकर भोजन किया और तीन बजे अपराह्न तक विश्राम किया। तीन बजे से चार बजे तक कक्षा दो के बच्चों के लिए एक कहानी टाइप की और प्रिंट निकाल कर उसे लेमिनेट किया। इस कहानी ''दो बकरियां'' से कक्षा दो के बच्चों से उन बच्चों को पढ़वाने का अभ्यास कराऊंगा जिन्हें वर्णमाला भी ठीक से पहचाननी नहीं आ रही है। चार बजे विद्या मन्दिर के आचार्य जी आए। एक घण्टा उन्हें कम्प्यूटर सिखाया और फिर उनके साथ बाजार टहलने निकल गया।
साढ़े आठ बजे से डायरी लिखी। दस बजे डायरी पूरी की, कादम्बिनी का अगस्त अंक पढा और साढ़े दस बजे सो गया।
13-14 अगस्त 2007
आज दिनांक 13 अगस्त सोमवार को ठीक सात बजे विद्यालय पहुंचा। आज मुझे एन. पी. आर. सी. बड़ेथ में नौ दिवसीय प्रशिक्षण में जाना है। और एम. टी. के रूप में प्रतिभाग करना है।
हल्की-हल्की
बारिश हो रही थी। मैं नौ बजे तक विद्यालय में रहा। सवा आठ तक प्रार्थना
हुई और उसके बाद बच्चे कक्षाओं में बैठे। मैंने बिमला को विद्यालय का चार्ज
समझाया। उसके लिए स्कूल में पढ़ाने का आदेश बनाया, उसे भोजन की व्यवस्था और
अन्य बातें समझा कर नौ बजे सी. आर. सी. बड़ेथ के लिए चल दिया। आज स्कूल में
बिंदुलेश और बिमला थीं। केदारी अस्वस्थ थी और मेरे ही साथ हास्पिटल जाने
के लिए धौन्तरी आ गई थी।
10
बजे स्कूटर से सी.आर.सी. रायमेर पहुंचा। कुल 28 अध्यापकों के लिए इस
प्रशिक्षण के आदेश निर्गत किए गए थे। परन्तु आज प्रशिक्षण में केवल आठ लोग
ही उपस्थित हुए। एक शिक्षक ने तो केवल रजिस्टर में साइन किए और चला गया।
बाकी लोग उसकी हरकत पर मुस्कराते रहे।
आज का सत्र परिचय में ही बीता। प्रतिभागियों को इस नौ दिवसीय प्रशिक्षण का परिचय दिया। जिसमें पहले तीन दिन अभिप्रेरण ,दूसरे तीन दिन प्रथम संस्था का नींव कार्यक्रम और आखिरी तीन दिन मूल्यांकन, मापन, परीक्षण, कोटिकरण और ब्लूप्रिंट आदि पर मॉडयूल प्रस्तुत किए जाने हैं।
आज का सत्र परिचय में ही बीता। प्रतिभागियों को इस नौ दिवसीय प्रशिक्षण का परिचय दिया। जिसमें पहले तीन दिन अभिप्रेरण ,दूसरे तीन दिन प्रथम संस्था का नींव कार्यक्रम और आखिरी तीन दिन मूल्यांकन, मापन, परीक्षण, कोटिकरण और ब्लूप्रिंट आदि पर मॉडयूल प्रस्तुत किए जाने हैं।
पूरा
कक्ष खाली होने के कारण कुछ विशेष बताने का उत्साह नहीं जगा। प्रतिभागियों
के साथ अनौपचारिक बातचीत होती रही। अनौचारिक बातचीत में सभी शिक्षक
स्वीकार करते हैं कि प्रशिक्षण अब निरर्थक होते जा रहे हैं। अध्यापकों की
प्रशिक्षणों से अरूचि होती जा रही है। इसके एक साथ कई कारण हैं। एक तो
प्रशिक्षण केन्द्रों पर अनुशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। यह स्थिति
डायट से लेकर सीआरसी तक है। डीपीईपी और सर्वशिक्षा के आरंभिक दिनों में
बीआरसी में जो प्रशिक्षण चले उनमें बहुत ही अच्छा उत्साह का माहौल रहता था।
प्रतिभागी 32 के समूह में आते थे। समय पर आते थे, रुचिपूर्वक भाग लेते थे।
सार्थक बहस होती थी। प्रतिभागी पूरे समय प्रशिक्षण कक्ष में रहते थे।
प्रशिक्षण कक्ष के बाहर भी चर्चा का वातावरण रहता था। कक्ष छोड़ते वक्त
प्रतिभागियों के चेहरे पर एक अनोखी चमक देखी जा सकती थी। यहां तक कि बस में
भी प्रशिक्षण के मुद्दों पर चर्चा होती थी। प्रशिक्षण दाताओं की
प्रस्तुतिकरण और उनकी क्षमता पर भी बातचीत होती थी। पर तीसरे वर्ष के बाद
धीरे-धीरे प्रशिक्षणों की गुणवत्ता गिरती गई और आज यह स्थिति हो गई है कि
कोई प्रशिक्षण कक्ष में जाना ही नहीं चाहता।
मैंने 2001 में जब पहली बार बी.आर.सी. स्तर पर प्रशिक्षण दिया तो खूब अध्ययन किया। प्रतिभागी भी संबंधित विषय पर अच्छे सार्थक प्रश्न करते थे। यह सिलसिला 2004-05 के प्रशिक्षणों तक चला। इस अवधि में मैंने स्वाध्याय से अर्जित अपने ज्ञान और अनुभव को सभी के साथ बांटने का भरसक प्रयत्न किया। इस दौरान एकलव्य से प्रकाशित स्रोत के अंक बहुत काम आए। विषय के प्रसंग में मैंने इन पत्रिकाओं के पुराने अंकों में छपे लेखों को अपने साथी शिक्षकों के साथ बांटा।
लगन मेहनत और रुचि से प्रशिक्षण में भाग लेने से मुझे भी बहुत लाभ मिला। एक ओर जहां मेरा विषय को रोचक तरीके से प्रस्तुत करने का अनुभव बढ़ा वहीं मुझे प्रशंसा और सम्मान भी मिला जो मेरे लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इसके साथ ही मैं अधिकारियों की दृष्टि में भी आया और मुझे राज्य स्तर पर काम करने का अवसर दिया जाने लगा। और धीरे-धीरे मैं ब्लॉक स्तर से उठ कर राज्य स्तर पर काम करने लगा। प्रशिक्षण समाप्ति पर दसवें दिन लगता था कि काश यह प्रशिक्षण कुछ और दिन चलता ? इन प्रशिक्षण सत्रों में केवल शैक्षिक मुद्दे शामिल नहीं थे। इन दस दिनों में लोग भावनात्मक रूप से भी नजदीक आते थे। अपनी समस्याएं और उपलब्धियां दोनों शेयर करते थे। इसके साथ ही नए मित्र भी बनते थे। कुल मिलाकर प्रशिक्षण बहुत ही रोमांचक होता था। इस दौरान अधिकारी भी अक्सर दूसरे-तीसरे दिन अनुश्रवण के लिए आते थे और पूरे मनोयोग से प्रशिक्षण का हिस्सा बनते थे। उन अध्यापकों जो कभी भी अधिकारियों से परिचित नहीं हो पाते यहां तक कि उन्हें कभी देख भी नहीं पाते इन प्रशिक्षणों के माध्यम से उनके निकट आते थे और एक तरह से अधिकारियों का भी अपनापन बनता था।
आज प्रशिक्षणों की स्थिति देखता हूं तो रोना आता है। हमारे तंत्र पर वे थोड़े से लोग हावी हो गए हैं जो सदा से शिक्षा जगत पर बोझ की तरह रहे हैं। वे लोग पहले भी थे पर सब के सक्रिय रहने से उन्हें भी मजबूरन ही सही पर प्रशिक्षण कक्ष में बंधे रहना पड़ता था। अगर वे लोग कक्ष से नदारद रहते भी तो सभी उन्हे इग्नोर करते थे। आज वे जैसे आदर्श हो गए हैं। ‘अमुक व्यक्ति क्यों नहीं है ? उनके साथ जब कुछ नहीं होता तो हम भी क्यों यहां पांच घंटे बिताएं’ जैसी बातें प्रतिभागी कहने लगे हैं।
मैंने 2001 में जब पहली बार बी.आर.सी. स्तर पर प्रशिक्षण दिया तो खूब अध्ययन किया। प्रतिभागी भी संबंधित विषय पर अच्छे सार्थक प्रश्न करते थे। यह सिलसिला 2004-05 के प्रशिक्षणों तक चला। इस अवधि में मैंने स्वाध्याय से अर्जित अपने ज्ञान और अनुभव को सभी के साथ बांटने का भरसक प्रयत्न किया। इस दौरान एकलव्य से प्रकाशित स्रोत के अंक बहुत काम आए। विषय के प्रसंग में मैंने इन पत्रिकाओं के पुराने अंकों में छपे लेखों को अपने साथी शिक्षकों के साथ बांटा।
लगन मेहनत और रुचि से प्रशिक्षण में भाग लेने से मुझे भी बहुत लाभ मिला। एक ओर जहां मेरा विषय को रोचक तरीके से प्रस्तुत करने का अनुभव बढ़ा वहीं मुझे प्रशंसा और सम्मान भी मिला जो मेरे लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इसके साथ ही मैं अधिकारियों की दृष्टि में भी आया और मुझे राज्य स्तर पर काम करने का अवसर दिया जाने लगा। और धीरे-धीरे मैं ब्लॉक स्तर से उठ कर राज्य स्तर पर काम करने लगा। प्रशिक्षण समाप्ति पर दसवें दिन लगता था कि काश यह प्रशिक्षण कुछ और दिन चलता ? इन प्रशिक्षण सत्रों में केवल शैक्षिक मुद्दे शामिल नहीं थे। इन दस दिनों में लोग भावनात्मक रूप से भी नजदीक आते थे। अपनी समस्याएं और उपलब्धियां दोनों शेयर करते थे। इसके साथ ही नए मित्र भी बनते थे। कुल मिलाकर प्रशिक्षण बहुत ही रोमांचक होता था। इस दौरान अधिकारी भी अक्सर दूसरे-तीसरे दिन अनुश्रवण के लिए आते थे और पूरे मनोयोग से प्रशिक्षण का हिस्सा बनते थे। उन अध्यापकों जो कभी भी अधिकारियों से परिचित नहीं हो पाते यहां तक कि उन्हें कभी देख भी नहीं पाते इन प्रशिक्षणों के माध्यम से उनके निकट आते थे और एक तरह से अधिकारियों का भी अपनापन बनता था।
आज प्रशिक्षणों की स्थिति देखता हूं तो रोना आता है। हमारे तंत्र पर वे थोड़े से लोग हावी हो गए हैं जो सदा से शिक्षा जगत पर बोझ की तरह रहे हैं। वे लोग पहले भी थे पर सब के सक्रिय रहने से उन्हें भी मजबूरन ही सही पर प्रशिक्षण कक्ष में बंधे रहना पड़ता था। अगर वे लोग कक्ष से नदारद रहते भी तो सभी उन्हे इग्नोर करते थे। आज वे जैसे आदर्श हो गए हैं। ‘अमुक व्यक्ति क्यों नहीं है ? उनके साथ जब कुछ नहीं होता तो हम भी क्यों यहां पांच घंटे बिताएं’ जैसी बातें प्रतिभागी कहने लगे हैं।
इस
सारी व्यवस्था के लिए हमारा पूरा तंत्र जिम्मेदार है। उसमें सीआरसी
समन्वयक से लेकर बीएसए/डायट प्राचार्य और शायद उनसे बड़े अधिकारी भी समान
रूप से जिम्मेदार हैं।
प्रशिक्षणों के असफल होने का दूसरा बड़ा कारण है पैसे के मामले में भ्रष्ट हो गया हमारा पूरा सिस्टम। प्रशिक्षणों का उद्देश्य शैक्षिक गुणवत्ता संवंर्ध्दन न होकर पैसा कमाना हो गया है। सबकी दृष्टि प्रशिक्षणों के लिए आ रही मोटी रकम पर टिकी रहती है। पहले डायट और बी.आर.सी. में यह होड़ रहती थी कि प्रशिक्षण डायट में हों। उसमें प्रशिक्षणों की विकेन्द्रीकरण नीति के कारण बीआरसी की जीत हुई तो दो तीन साल तो बैच ठीक संख्या अर्थात 32 की संख्या में ही बुलाते जाते रहे पर बाद में 90-90 प्रशिक्षणों के बैच भी बीआरसी में चले। ऐसे में प्रशिक्षणों की गुणवत्ता को समझा जा सकता है। इस भीड़ में उन लोगों ने खूब फायदा उठाया जो प्रशिक्षणों से नदारद रहना अपना मौलिक कर्तव्य समझते हैं और कक्ष में उपस्थित रहना अपनी तौहीन समझते हैं। इन भगोड़े साथियों को प्रोत्साहित करने में भी पैसे का ही हाथ रहा है। वह ऐसे कि वे बीआरसी समन्वयक या सह समन्वयक जो भी प्रशिक्षण के अंत में टी.ए., डी.ए. बांटते हैं, से मिल जाते हैं और कहते हैं भाई मेरा टी.ए./डी.ए. तुम ही खा लेना और हो सके तो मेरे छूटे हुए दस्तखत भी कर लेना। बस हो गया दोनों का काम। दसवें दिन बाकी प्रक्षिणार्थियों के जाने के बाद इन महान विभूतियों के छूटे हुए हस्ताक्षर संबंधित सह समन्वयक कर लेता है और हर प्रशिक्षण में अच्छी रकम बना लेता है। इस तरह से राशन भी बचता है और पैसा भी।
फिर बी.आर.सी. समन्वयक और अब सी.आर.सी. समन्वयक का यह रोना रहता है कि उन्हें शेयर ऊपर तक पहुंचाना पड़ता है। इसमें जिला समन्वयक, बी.एस.ए. अनुश्रवण कर्ता और डायट प्राचार्य तक सभी शामिल होते बताए जाते हैं।
('एक अध्यापक की डायरी के कुछ पन्ने : हेमराज भट्ट 'से साभार)प्रशिक्षणों के असफल होने का दूसरा बड़ा कारण है पैसे के मामले में भ्रष्ट हो गया हमारा पूरा सिस्टम। प्रशिक्षणों का उद्देश्य शैक्षिक गुणवत्ता संवंर्ध्दन न होकर पैसा कमाना हो गया है। सबकी दृष्टि प्रशिक्षणों के लिए आ रही मोटी रकम पर टिकी रहती है। पहले डायट और बी.आर.सी. में यह होड़ रहती थी कि प्रशिक्षण डायट में हों। उसमें प्रशिक्षणों की विकेन्द्रीकरण नीति के कारण बीआरसी की जीत हुई तो दो तीन साल तो बैच ठीक संख्या अर्थात 32 की संख्या में ही बुलाते जाते रहे पर बाद में 90-90 प्रशिक्षणों के बैच भी बीआरसी में चले। ऐसे में प्रशिक्षणों की गुणवत्ता को समझा जा सकता है। इस भीड़ में उन लोगों ने खूब फायदा उठाया जो प्रशिक्षणों से नदारद रहना अपना मौलिक कर्तव्य समझते हैं और कक्ष में उपस्थित रहना अपनी तौहीन समझते हैं। इन भगोड़े साथियों को प्रोत्साहित करने में भी पैसे का ही हाथ रहा है। वह ऐसे कि वे बीआरसी समन्वयक या सह समन्वयक जो भी प्रशिक्षण के अंत में टी.ए., डी.ए. बांटते हैं, से मिल जाते हैं और कहते हैं भाई मेरा टी.ए./डी.ए. तुम ही खा लेना और हो सके तो मेरे छूटे हुए दस्तखत भी कर लेना। बस हो गया दोनों का काम। दसवें दिन बाकी प्रक्षिणार्थियों के जाने के बाद इन महान विभूतियों के छूटे हुए हस्ताक्षर संबंधित सह समन्वयक कर लेता है और हर प्रशिक्षण में अच्छी रकम बना लेता है। इस तरह से राशन भी बचता है और पैसा भी।
फिर बी.आर.सी. समन्वयक और अब सी.आर.सी. समन्वयक का यह रोना रहता है कि उन्हें शेयर ऊपर तक पहुंचाना पड़ता है। इसमें जिला समन्वयक, बी.एस.ए. अनुश्रवण कर्ता और डायट प्राचार्य तक सभी शामिल होते बताए जाते हैं।
पूरी डायरी हिन्दी और अंग्रेजी में इस लिंक पर देखी जा सकती है-
http://www.azimpremjiuniversity.edu.in/content/publications
0 राजेश उत्साही
bahut kuch kah gaye ye panne
ReplyDeleteजमीनी सत्य से जुड़े डायरी के पन्ने।
ReplyDeleteMahesh Punetha ने लिखा: "yah ek jaroori kam kiya gaya hai. .....prakask badhai ke patra hain. is kary ki jitani prasansha ki jay kam hai. yah ek adhyapak ko hi nahni poori shixa vyawastha ko janane samajhane ke liye pramanik dastawej sabit hoga."
ReplyDeleteबच्चों को पढ़ाना सही में हर किसी के बस की बात नहीं है। झुंझलाहट भी होती है। पर ऐसे जिम्मेदार शिक्षक हों तो देश का कब का भला हो जाता। हाल ही में सरकारी सर्वेक्षण आया था शायद जो आजकल के अध्यापकों के स्तर को कमतर बता रहा था ..ऐसे में देश का भविष्य क्या बनेगा समझ में नहीं आता.....2020 तक भारत कैसा विश्वशक्ति होगा......पता नहीं।
ReplyDeleteKaluram Sharma
ReplyDeleteने लिखा: "kal hi Hemraj Bhatt ka karyakram tha Uttarkashi me. Maine bhi shirakat ki. BALSAKHA ki smriti me matrabhasha me shiksha ki parsingkta par batchit hui. lagbhag 100 teacher maujud the. sath hi diary ka vimochan bhi huwa."
यह बहुत उपयोगी चीज साबित हो सकती है, न केवल बच्चों के लिए बल्कि अभिभावकों के लिए भी.
ReplyDeleteअपने उत्तरदायित्व के प्रति ऐसे समर्पित शिक्षक कहाँ मिलते हैं.
ReplyDeleteडायरी के पन्नों से बहुत कुछ ज्ञात हुआ...
सरकारी प्रशिक्षण का काला चिट्ठा उघाड़कर रख दिया आपने..
ReplyDeleteकमोवेश यही हाल सब जगह का है..
आलेख गहरे विचारों से परिपूर्ण !
ReplyDeletebhaiyaa rajesh aap jo kchh likhtehain naayaab hotaa hai.bss
ReplyDeleteDr anand