Thursday, February 4, 2010

नसीम अख्‍तर की कविताओं के बहाने


नसीम अख्‍तर की कविताओं के बहाने से मैं कुछ ऐसा कहना चाहता हूं, जो मेरे मन में वर्षों से दबा है। मुझे याद है अपना वो समय जब मैंने कविताएं लिखना शुरू किया था। यह समय था अस्‍सी के दशक का। होशंगाबाद जैसे कस्‍बे में नई कविता पर बात करने वाले दो-चार लोग ही थे। कविता पर टिप्‍पणी करने या एक उस्‍ताद की तरह सलाह देने वालों का तो दूर दूर तक नामों निशान नहीं था। तब जानी मानी पत्रिका पहल के संपादक ज्ञानरंजन जी से अपनी एक कविता के सिलसिले में छह माह तक लंबी बहस चली थी। यह एक पूरी अलग कहानी है। बहरहाल मैंने महसूस किया कि अगर नवोदित लेखकों को कोई ठीक से सलाह देने वाला हो तो उनकी प्रतिभा निखरकर सामने आती है। मैंने अपने तई यह बीड़ा उठाया। मेरे संपर्क में जो साथी आए या जिन्‍होंने मुझसे सलाह मांगी, उन्‍हें मैंने दी। इसमें कोई शक नहीं कि जितना मुझे आता था उतना मैंने उन्‍हें बताया। यह जो ‘आता था’ वह मैं अपने अनुभव से सीख रहा था और अब भी सीख रहा हूं।

फिर 1985 में कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मैं बालविज्ञान पत्रिका चकमक शुरू हुई और मैं उसके पहले अंक से उसकी संपादकीय टीम में शामिल हो गया। चकमक ने मुझे मौका‍ दिया कि मैं बच्‍चों की लेखन क्षमता को पहचानकर उन्‍हें प्रोत्‍साहित करने का सुख कमा सकूं। चकमक पढ़कर बड़े हुए ऐसे कई नवोदित लेखक हैं जो कहीं न कहीं मुझे याद करते रहते हैं। मैं उनका आभारी हूं।

चकमक ने मुझे यह मौका भी दिया कि मैं संपादक के नाते जाने-माने लेखकों से टकरा सकूं। टकरा संकू शब्‍द इसलिए इस्‍तेमाल कर रहा हूं कि स्‍थापित लेखकों की स्‍थापित मान्‍यताओं और अवधारणों को तोड़ने के लिए उनसे टक्‍कर ही लेनी पड़ती है। और बच्‍चों के लिए लिखने वाले वयस्‍क लेखकों के साथ यह और गहरी समस्‍या रही है। यह समस्‍या शाशवत है। वे बच्‍चों के लिए लेखन को बाएं हाथ का खेल समझते हैं। मुझे ऐसे बाएं हाथ वालों से दो-दो हाथ करने में मजा आता रहा है। और कईयों को मैं यह बात समझाने में सफल भी रहा हूं कि यह बाएं हाथ का खेल नहीं है। कुछ आज भी अपनी लकीर पर लटके हुए हैं। खैर जब चकमक का मुझ से या मेरा चकमक से मोहभंग हुआ तो यह फितूर कुछ दिन के लिए रूक गया। पर जहां-जहां मुझे मौका मिला, मैं फटे में टांग डालता रहा।

नसीम से मुलाकात अचानक ही हो गई। नसीम आजकल एकलव्‍य में हैं। उनके भाई मोहम्‍मद उमर भी एकलव्‍य में हैं। उन्‍होंने नसीम को गुल्‍लक से परिचित कराया। नसीम ने अपनी कुछ कविताएं मुझे दिखाईं। मुझे उसकी कविताओं में नए बिम्‍ब और ताजगी नजर आई। लेकिन जैसा कि होता है कविता या किसी भी लेखन में भाषा में कसाव अभ्‍यास के बाद ही आता है। मुझे उसकी कविताओं में यह स्‍वाभाविक कमी नजर आई।

मैंने नसीम की कविताओं को संपादित किया। यहां गुल्‍लक में प्रस्‍तुत नसीम की ये कविताएं इंडिया टुडे स्‍त्री के जनवरी,2010 अंक में प्रकाशित हुई हैं। संयोग से इसमें ‘तुम्‍हारा मौन’ कविता वही है जिसे मैंने संपादित किया। एक अच्‍छे पाठक के नाते आप देख सकते हैं कि नसीम बाकी दोनों कविताएं अपनी ताजगी के बावजूद भाषा में और अधिक संतुलन की मांग करती हैं। मैंने दोनों कविताओं में जो संपादन होना चाहिए वह करके उसे दिया है। उसने बहुत विनम्रता से मेरे सुझावों को माना है।

नसीम केवल एक नाम भर नहीं है। मेरे लिए वह उस सुकून का नाम है जिसे याद करके मैं सोचता हूं कि मैंने जो सीखा उसे मैं औरों तक स्‍थानांतरित कर पा रहा हूं। हाल ही में मैंने उससे कहा वह बच्‍चों के लिए लिखे। उसने मुझे मेल पर जवाब दिया बच्‍चों के लिए लिखना कठिन काम है। पर अगर आप साथ हैं तो कुछ भी कठिन नहीं है।

मैं नसीम के इस जज्‍बे को सलाम करता हूं।

3 comments:

  1. सादर नमन ...नसीम जी जैसे महान शक्स को

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  2. नसीम की कविताएं बहुत खूबसूरत हैं।

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  3. RAJESH JI, AAPKA SAHAYOG SAR AANKHO PAR JI, @ UDAY TAMHANEY. BHOPAL.

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...